Ranam Aram Thavarel Movie Review: लॉजिक के अभाव में मैजिक नहीं कर सकी इन्वेस्टिगेशन थ्रिलर

नई दिल्ली. अगर आप क्राइम बेस्ड इन्वेस्टिगेशन-थ्रिलर फिल्में देखने के शौकीन हैं, तो तमिल सिनेमा के राइटर-डायरेक्टर शेरीफ लेकर आए हैं रानम अराम थावरेल (ranam aram thavarel) जैसी चर्चित फिल्म. साउथ के फिल्ममेकर्स सस्पेंस स्टोरीज के मास्टर माने जाते हैं. खासकर इन्वेस्टिगेटिव स्टोरीज के मामले में साउथ ने हिंदी सिनेमा को पीछे छोड़ रखा है.

रानम अराम थावरेल की पृष्ठभूमि भी ऐसी ही कहानी पर आधारित है. फिल्म का हीरो शिवा एक क्राइम राइटर है, जो अपनी आर्टिस्टिक और प्रिडिक्शन स्किल बोले तो लेखकीय कला और भविष्यवाणी के बूते पुलिस डिपार्टमेंट की केस सॉल्व करने में मदद करता है. उसे विकृत यानी क्षत-विक्षत चेहरों को विजुआलाइज कर स्कैच के जरिये एक्चुअल फेसियल फीचर्स में री-प्रोडक्ट करने का हुनर है.

कहानी तब शुरू होती है, जब चेन्नई शहर के अलग-अलग हिस्सों में शरीर के अंग मिलते हैं. पुलिस को यह आशंका तो थी कि ये किसी बड़े अपराध को जन्म दे रहे हैं, लेकिन मास्टरमाइंड तक कैसे पहुंचा जाए, केस को कैसे सुलझाया जाए, यह एक बड़ी चुनौती होती है. पुलिस शिवा की स्केचिंग क्षमता का प्रयोग पीड़ितों की पहचान करने के लिए करती है. पुलिस कैसे अपराधी तक पहुंचती है, फिल्म इसी दिलचस्प कहानी को आगे बढ़ाती है.

यह एक ऐसी क्राइम थ्रिलर स्टोरी है, जो सीन-दर-सीन दर्शकों के शरीर में झुनझुनी पैदा करती है. हालांकि यह अलग बात है कि डायरेक्टर पूरी फिल्म मे कसावट लाने में नाकाम रहे. इंटरवल के पहले का पार्ट दर्शकों को बांधे रखता है। करीब 15 मिनट तक फिल्म के दृश्य रोमांच और उत्सुकता जगाते हैं, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी ढीली सी पड़ गई. बेवजह और अनावश्यक दृश्य दर्शकों में ऊब पैदा कर देते हैं.

चूंकि पुलिस इन्वेस्टिगेशन पर बेस्ड फिल्मों में अगर लॉजिक न हो, तो बचकाना लगने लगती हैं. ऐसा कॉमेडी बेस्ड फिल्मों में चल जाता है, लेकिन गंभीर किस्म की स्टोरीज में कतई नहीं. शेरिफ यहां चूक गए. वे घटनाओं को जोड़ने में लॉजिक का इस्तेमाल करना भूल गए या गड़बड़ी कर बैठे. यही वजह रही कि फिल्म के प्लॉट से दर्शक ठीक से नहीं जुड़ पाए.

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फिल्म 23 फरवरी को रिलीज हुई है.

वैभव अन्ना की यह 25वीं फिल्म है. उन्होंने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी. अपनी एक्टिंग में कुछ नयापन लाने में भी सफल रहे हैं, लेकिन निर्देशकीय और कहानी की कमियों के चलते वे निराश करते दिखे. इंस्पेक्टर इंदुजा के किरदार में तान्या होप प्रभाव छोड़ते दिखीं. मां के रोल में इंटरवल के बाद प्रकट हुईं नंदिता श्वेता भी दर्शकों को पसंद आईं.

शेरिफ ने यह फिल्म जिस मकसद से बनाई थी, वे उसमें पूरी तरह सफल नहीं हो सके. वे बताना चाहते थे कि क्रिमिनल्स कितना भी शातिर हो, पुलिस की इन्वेस्टिगेशन और स्कैच आर्टिस्ट उसकी गिरेबां तक पहुंच ही जाते हैं. कोई भी इन्वेस्टिगेशन थ्रिलर फिल्म की सक्सेस इस बात पर निर्भर करती है कि उसकी कहानी कितने लॉजिक के साथ आगे बढ़ती है. यह फिल्म इस मायने में अपनी छाप नहीं छोड़ सकी. यह फिल्म एक जिस गंभीर विषय को लेकर बनाई गई, उसमें मारधाड़ उतनी प्रासंगिक नहीं है. कहीं-कहीं फिल्म भटक कर साउथ की आम एक्शन फिल्म के ट्रैक पर चली जाती है.

जहां तक सिनेमैटोग्राफी की बात है, तो बालाजी के राजा ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है. एरोल कोरेली का बैकग्राउंड स्कोर ठीक है. डायलॉग अच्छे बन पड़े हैं, मगर एडिट के पॉइंट आफ व्यूज से तमाम गड़बड़ियां हैं. मुनीज ठीक से काम नहीं कर सके. खैर, जिन्हें मर्डर मिस्ट्री फिल्म देखने में दिलचस्पी है, वे एक बार इसे देख सकते हैं.

Tags: Movie review, South cinema

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