Manoj Bajpayee recalls being mocked mercilessly for his poor English: ‘All my roommates would make fun of me’ | मनोज बाजपेयी की अंग्रेजी का मजाक बनाते थे फ्रेंड्स: खुद को पिछड़ा समझते थे एक्टर; बाद में उनकी अंग्रेजी सुन शॉक्ड हुए दोस्त

3 घंटे पहले

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मनोज बाजपेयी की अंग्रेजी का मजाक बनाया जाता था। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले उनके कॉलेज फ्रेंड्स मनोज की टूटी-फूटी इंग्लिश का मजाक बनाते थे। मनोज ने कहा कि वो बिहार से आए थे। उनका लहजा शहरी नहीं था। वो अपने आप को दुनिया से अलग मानते थे। खुद को बुरा न लगे इसलिए मनोज अपना ही मजाक बनाने लगे थे।

अपने आप को पिछड़ा हुआ मानते थे मनोज
मनोज बाजपेयी ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा- मैं बिहार से दिल्ली यूनिवर्सिटी पढ़ने आया था। वहां आकर लगा कि मैं औरों के रहन-सहन से कितना अलग हूं। ऐसा फील होता था कि मैं किसी और दुनिया से आ गया हूं।

शहरी रहन-सहन, एजुकेशन और बोल-चाल में अपने आप को काफी पीछे समझता था। जब भी औरों को देखकर अंग्रेजी बोलने की कोशिश करता तो साथ पढ़ने वाले लोग मजाक बनाना शुरू कर देते थे।

मनोज बाजपेयी बिहार के छोटे से शहर बेतिया के रहने वाले हैं।

मनोज बाजपेयी बिहार के छोटे से शहर बेतिया के रहने वाले हैं।

दिल्ली यूनिवर्सिटी ने मनोज की पर्सनैलिटी को एक शेप दिया
मनोज ने आगे कहा- मुझे अपने आप को बहुत जल्दी बदलना था। वहां की सोसायटी में अपने आप को जल्दी ढालना था। दिल्ली यूनिवर्सिटी ने इस मामले में मेरी बहुत हेल्प की। वहां से मेरी पर्सनैलिटी को एक शेप मिला।

मेरी दोस्ती एक नाइजेरियन लड़के से हुई। उसे सिर्फ अंग्रेजी आती थी। मुझे उससे मजबूरी में अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ती थी। हालांकि उसने मुझे कभी जज नहीं किया। उसकी वजह से मेरी बोली में काफी सुधार हुआ।

जो मजाक बनाते थे बाद में शॉक्ड हुए
मनोज ने कहा कि काफी साल बाद उनके एक दोस्त का कॉल आया। वो उन्हीं लड़कों में था, जो उनकी अंग्रेजी का मजाक बनाते थे। वो अपने किए पर काफी शर्मिंदा था। मनोज ने कहा कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के दोस्त अब उनकी फ्लूएंट इंग्लिश को सुनकर गच्चे खा जाते हैं।

शुरुआत में खाने को लाले पड़े थे, 5 KM पैदल चलना पड़ता था
मनोज बाजपेयी बिहार के एक साधारण परिवार से आते हैं। उन्होंने 17 साल की उम्र में नाटकों में काम करना शुरू कर दिया था। जब वो बॉम्बे गए तो उन्हें वहां कोई नहीं जानता था। खाने तक के लाले पड़े थे। मनोज की उस वक्त ऐसी कंडीशन थी कि उन्हें बड़ा पाव तक महंगा लगता था। ट्रैवल करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं रहते थे।

उन्हें 5 किलोमीटर तक तो पैदल ही चलना पड़ता था। 1994 में मनोज बाजपेयी को पहला ब्रेक महेश भट्ट ने अपने टीवी सीरियल स्वाभिमान के जरिए दिया। इसमें काम करने के लिए उन्हें 1500 रुपए प्रति एपिसोड मिलते थे।

यह सीन फिल्म सत्या का है।

यह सीन फिल्म सत्या का है।

भीखू म्हात्रे’ बन जीता नेशनल अवॉर्ड
मनोज ने शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ से डेब्यू किया। हालांकि 1998 में आई राम गोपाल वर्मा की ‘सत्या’ को मनोज अपना असली डेब्यू मानते हैं और इसी फिल्म ने उनकी जिंदगी बदल दी। ‘भीखू म्हात्रे’ के रोल से वो पूरे देश में पहचाने गए। इस रोल के लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला।

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