इस्राइल और ईरान के बीच टकराव एक जटिल और बहुस्तरीय संघर्ष है। इसकी आंच केवल दोनों देशों तक सीमित नहीं है। यह पूरी दुनिया को प्रभावित कर सकती है। भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था को जहां ऊर्जा आपूर्ति के संकट का सामना करना पड़ सकता है, वहीं रणनीतिक रूप से संतुलन साधने की उसकी क्षमता इस बार फिर चुनौती में है।
मध्य-पूर्व की यह लड़ाई केवल हथियारों की नहीं, राजनीति, कूटनीति और ऊर्जा सुरक्षा की भी लड़ाई बन चुकी है। दुनिया इस समय एक जटिल और बहुस्तरीय संकट से गुजर रही है। एक ओर रूस-यूक्रेन युद्ध तीसरे वर्ष में प्रवेश कर चुका है तो दूसरी ओर इस्राइल-ईरान के बीच टकराव ने मध्य-पूर्व में तनाव चरम पर पहुंचा दिया है। इन दोनों युद्धों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अमेरिका और नाटो की भूमिका न केवल सैन्य संतुलन को बदल रही है, बल्कि वैश्विक भू-राजनीति को भी एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा कर रही है।
तुर्किए की समाचार एजेंसी एनादोलु और कतर के अल जजीरा नेटवर्क की रिपोर्टों में अमेरिका और नाटो की रणनीति का विश्लेषण किया गया है। 2024 के उत्तरार्ध से इस्राइल और ईरान के बीच जो टकराव शुरू हुआ, वह अब सीधे युद्ध में बदल चुका है। गाजा और लेबनान के सीमावर्ती क्षेत्रों में पहले से चल रहे तनाव के बीच अप्रैल 2024 में ईरान से आए ड्रोन हमले के जवाब में इस्राइल ने तेहरान के पास के सैन्य प्रतिष्ठानों पर बमबारी की। इसमें ईरान को भारी नुकसान उठाना पड़ा।
इस्राइल को अमेरिका का खुला समर्थन
इस्राइल को अमेरिका का खुला समर्थन प्राप्त है और अप्रत्यक्ष रूप से उसे सऊदी अरब व कुछ खाड़ी देशों की रणनीतिक सहमति भी है, जो ईरान को एक साझा खतरे के रूप में देखते हैं। वहीं, ईरान को सीधा समर्थन सीरिया, लेबनान, यमन और इराक की शिया मिलिशियाओं से मिलता है, जबकि रूस-चीन जैसे देश कूटनीतिक मोर्चे पर ईरान के साथ खड़े दिखते हैं।
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शिया-सुन्नी खेमों में बंटा मध्य पूर्व
सऊदी अरब और ईरान के बीच क्षेत्रीय वर्चस्व की होड़ ने मिडिल ईस्ट को शिया-सुन्नी खेमों में पहले ही बांट दिया है। यमन, सीरिया, इराक और लेबनान जैसे देशों में यह टकराव परोक्ष रूप से झलकता है। हाल में सऊदी अरब और ईरान के बीच चीन की मध्यस्थता से हुए समझौते ने कुछ नई संभावनाएं भी जगाई हैं। हालांकि, ईरानी सुप्रीम लीडर अली अयातुल्ला खामेनेई के सामने कड़ी अग्निपरीक्षा है।
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