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Supreme Court: ‘हालांकि, टेक्नोलॉजी सशक्त करती है, मगर डिजिटल डिवाइड भी एक वास्तविकता है’, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (2 जनवरी) को एक मामले की सुनवाई के दौरान ये टिप्पणियां कीं. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो बिहार पुलिस ज्वाइन करना चाहता था. मगर टाइपो की गलती की वजह से उसका सपना टूट गया. उसके ऑनलाइन एप्लिकेशन में जन्मतिथि 18/12/1997 की जगह 08/12/1997 दर्ज हो गई थी. 

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस जेके महेश्वरी और केवी विश्वनाथन की पीठ ने पाया कि याचिकाकर्ता बिहार के एक छोटे से गांव और समाज के सबसे निचले वर्ग से आता है. उसके लिए साइबरकैफे का माहौल समझना मुश्किल हो गया होगा. अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता के लिए अप्वाइंटमेंट लेटर जारी करे और चार हफ्तों के भीतर उसे बिहार पुलिस में एक कांस्टेबल के तौर पर नियुक्त किया जाए. 

भर्ती नहीं होने पर आगे वैकेंसी निकलने पर हो नियुक्ति: अदालत

अदालत ने अपने फैसले में कहा, ‘हम आगे निर्देश देते हैं कि वैकेंसी नहीं होने के हालातों में भी इस मामले के विशेष मानते हुए अप्वाइंटमेंट लेजर जारी करना होगा. हम भारत के संविधान के आर्टिकल 142 में दिए गए शक्तियों के आधार पर ये फैसला देते हैं. हम आगे निर्देश देते हैं कि वैकेंसी नहीं होने की स्थिति में राज्य अगली भर्ती में वैकेंसी को समायोजित करने के लिए स्वतंत्र है, इसका सरकार आने वाले वर्षों में सहारा भी ले सकती है.’

क्या होता है डिजिटल डिवाइड?

पीठ ने माना कि वह इस मामले में मौजूदा जमीनी हकीकतों को नजरअंदाज नहीं कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने 2021 के फैसले में सही ही कहा था कि टेक्नोलॉजी सशक्त बनाने का काम करती है. लेकिन साथ ही डिजिटल डिवाइड भी है. डिजिटल डिवाइड उसे हालात को कहा जाता है, जब आबादी के एक हिस्से की कंप्यूटर और इंटरनेट तक पहुंच होती है, मगर एक हिस्सा इन सुविधाओं से कोसो दूर रहता है. अदालत ने इस मामले में इसी चीज का जिक्र किया. 

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