400 रिजेक्शन, सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी, फिर 130 अरब डॉलर की कंपनी का बना CEO बना यूपी का छोरा

नई दिल्‍ली. साइबर सुरक्षा कंपनी पालो ऑल्टो नेटवर्क्स के सीईओ निकेश अरोड़ा आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. जिस समय अरोड़ा ने कंपनी की कमान संभाली उस वक्‍त उसका वैल्यूएशन 18 अरब डॉलर था, जो अब बढ़कर 130 अरब डॉलर हो चुका है. गूगल और सॉफ्टबैंक जैसी दिग्‍गज कंपनियों में काम कर चुके निकेश अरोड़ा ने काफी संघर्ष के बाद यह मुकाम हासिल किया है. यूपी के गाजियाबाद में जन्‍में अरोड़ा को पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी पाने में काफी संघर्ष करना पड़ा. एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने बताया “मैंने 400 से ज्यादा जगह नौकरी के लिए आवेदन किया और हर जगह से रिजेक्शन मिला. लेकिन मैंने सारे रिजेक्शन लेटर संभालकर रखे, ये आज भी मेरी प्रेरणा हैं.” उनका कहना है कि कमी आपको जुगाड़ सिखाती है, कम संसाधनों में ज्यादा करने की ताकत देती है.

निकेश अरोड़ा के पिता भारतीय वायुसेना में थे. उनका तबादला एक शहर से दूसरे शहर में होता रहता था. बकौल अरोड़ा, “हम हर कुछ वर्षों में शहर बदलते थे. इससे जीवन में अनुकूलन की शक्ति आई. पिता से मैंने ईमानदारी और न्याय की भावना सीखी.” निकेश अरोड़ा ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की.इसके बाद उन्‍होंने अमेरिका में पढाई करने की सोची. उनके पास ज्‍यादा पैसे नहीं थे. उन्‍होंने अमेरिका के उन बिजनेस स्कूलों में आवेदन किया आवेदन शुल्क नहीं था. नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में उन्‍हें दाखिला मिल गया और स्‍कॉलरशिप भी.

अमेरिका में कभी बने सिक्‍योरिटी गार्ड तो कभी बर्गर सेल्‍समैन

बोस्टन की नॉर्थ ईस्टर्न यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढाई के लिए निकेश अरोड़ा को अपने पिता से केवल 75 हजार रुपये मिले थे. अमेरिका में रहने और पढने को यह पैसा बहुत कम था. खर्च निकालने को निकेश अरोड़ा ने कई काम किए. एक समय तो उन्‍होंने सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी से लेकर बर्गर बेचने जैसी छोटी-मोटी नौकरियां भी की.

400 से ज्यादा रिजेक्शन झेलने के बाद पहली नौकरी

निकेश अरोड़ा को 400 कंपनियों ने नौकरी देने से मना कर दिया. पर उन्‍होंने हार नहीं मानी और जॉब के लिए घूमते रहे. आखिरकार 1992 में उन्हें पहला ब्रेक मिला फिडिलिटी इन्‍वेस्‍टमेंट्स में. यहां उन्होंने कई भूमिकाएं निभाईं और बाद में फिडिलिटी टेक्‍नोलॉजीज के वाइस प्रेसिडेंट बने. उन्होंने बताया कि शुरुआत में उन्हें हाई फाइनेंस के लिए अनुपयुक्त बताया गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और CFA की पढ़ाई कर उस कोर्स को पढ़ाना भी शुरू कर दिया.

गूगल और सॉफ्टबैंक में निभाई अहम भूमिका

2004 में उन्होंने Google जॉइन किया. अगले दस वर्षों में उन्होंने गूगल की रेवेन्यू ग्रोथ को 2 अरब डॉलर से 60 अरब डॉलर तक पहुंचाने में योगदान दिया. इसके बाद वे सॉफ्टबैंक में शामिल हुए और जापानी अरबपति मसायोशी सोन के साथ काम किया. निकेश अरोड़ा का कहना है कि मसा सोन ने उन्हें एक खास सीख दी—“बुरे निवेशों को ठीक करने में समय बर्बाद मत करो, वहां ध्यान दो जहां आप पहले से अच्छा कर रहे हो.”

नहीं सीख पाए गोल्‍फ

सॉफ्टबैंक  से अलग होने के बाद निकेश ने कुछ समय ब्रेक लिया. गोल्फ सीखने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे. कुछ समय बाद उन्‍होंने Palo Alto Networks की कमान संभाली. उस समय कंपनी का वैल्यूएशन 18 अरब डॉलर था, जो अब बढ़कर 130 अरब डॉलर हो चुका है. कंपनी की सफलता का राज बताते हुए अरोड़ा कहते हैं, “साइबर सुरक्षा एक तेजी से बढ़ता क्षेत्र है. जितना हम तकनीक पर निर्भर होंगे, उतना ही खतरा बढ़ेगा. इसलिए हमने AI और क्लाउड तकनीक में पहले निवेश किया.”

साल 2012 में आए चर्चा में

निकेश साल 2012 में उस वक्त चर्चा में आए, जब वो गूगल के सबसे महंगे कर्मचारी बने थे. उस वक्त गूगल ने उन्हें 51 मिलियन डॉलर का पैकेज दिया था. यह पैकेज किसी भी दूसरे एग्जीक्यूटिव को मिल रहे पैकेज से बहुत ज्‍यादा था. गूगल छोड़कर जब उन्‍होंने सॉफ्टबैंक जॉइन किया तब भी उन्‍हें रिकॉर्ड पैकेज मिला. साल 2014 में उन्हें सॉफ्टबैंक ने 135 मिलियन डॉलर का पैकेज दिया था. पाओ अल्टो नेटवर्क्स ने 2018 में 860 करोड़ रुपये सालाना के पैकेज पर नौकरी पर रखा था. इसके अलावा उन्‍हें 125 मिलियन डॉलर कीमत के शेयर और 10 लाख डॉलर का टार्गेट बोनस दिया गया था.

पहले होने की जरूरत नहीं, समझदार बनो

निकेश ने ChatGPT के साथ अपने अनुभव को “आंखें खोल देने वाला” बताया. अमेरिका में AI को लेकर जबरदस्त रेस लगी हुई है, जहां न्यूक्लियर एनर्जी से संचालित कंप्यूटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की योजनाएं बन रही हैं. लेकिन भारत के लिए उन्होंने कहा कि असली अवसर स्थानीय डेटा और ज्ञान में है. उनका कहना है कि “पहले होने की जरूरत नहीं, समझदार बनो”.

उनका कहना है कि भारत में ऐसे लोग हैं जो लोकल AI को ग्लोबल बना सकते हैं. अरोड़ा ने कहा “हमारे ट्रैफिक, हमारी भाषाएं, हमारी संस्कृति – यही भारत की ताकत हैं. अमेरिका में ट्रेन की गई सेल्फ-ड्राइविंग कार भारत की सड़कों पर नहीं चल पाएगी. ऐसे में भारतीय कंपनियां ग्लोबल AI को स्थानीय संदर्भ में ढालकर अपनी पहचान बना सकती हैं.”

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