आज की खास खबर | हाल के वर्षों में बसपा का बेहाल हुआ, चुनाव में मायावती कितनी प्रासंगिक

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कभी उत्तर प्रदेश में 206 विधानसभा सीटें जीतकर अपने दम पर स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बनाने वाली बसपा को पिछले यूपी विधानसभा चुनाव  में महज एक सीट मिली थी। यही नहीं 2007 में जहां उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुल पड़े मतों में से 30। 4 फीसदी मिले थे, वहीं 2022 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 12. 9 फीसदी मत मिले और अगर सीटों के प्रतिशत की बात करें तो जहां उसे 2007 में 51. 1 फीसदी विधानसभा सीटें मिली थीं, वहीं साल 2022 में 1 फीसदी भी सीटें नहीं मिल सकीं, 2022 में बसपा को उत्तर प्रदेश की कुल सीटों में से महज 0. 2 फीसदी यानी सिर्फ एक विधानसभा सीटें मिली थी। शायद ही उत्तर प्रदेश में किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी का इतना ज्यादा पतन हुआ हो, जितना हाल के सालों में बसपा का हुआ है।

ये आम चुनाव बहुजन समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस और सीपीएम से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अगर आम चुनाव में बसपा उत्तर प्रदेश में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति नहीं जताती, तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने  समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था और 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इसमें उसे 10 लोकसभा सीटों में जीत मिली थी। यूपी में बसपा को आजतक सबसे ज्यादा 20 लोकसभा सीटें 2009 में और 19 लोकसभा सीटें 2004 में मिली थीं। इस बार जब बसपा सुप्रीमो मायावती अकेले चुनाव लड़ रही हैं? वैसे में अगर वह फिर से अपने को 2009 या 2004 की पोजीशन पर लौटा पाती हैं, तब तो बसपा का न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि देश में एक उर्वर राजनीतिक भविष्य नजर आता है, लेकिन अगर वे इन चुनावों में आशा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाती हैं , तो उनकी समूची राजनीति के हमेशा के लिए दफन हो जाने का खतरा है।
 
कुछ जानकार मानकर चल रहे हैं कि मायावती का भाजपा के साथ कोई गुप्त समझौता हुआ है जिस कारण वह उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के साथ नहीं गईं। उत्तर प्रदेश में भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच कड़े मुकाबले का बसपा को फायदा मिल सकता है और वह अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए प्रदेश में बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में लौट सकती हैं।
BJP ने हमेशा समर्थन वापस लिया

मायावती ने 1995 में, 1997 में और 2002 में भाजपा के समर्थन में सरकार बनायी। लेकिन यह साथ अंत तक एक बार भी नहीं चल पाया, हर बार भाजपा कार्यकाल पूरा होने के पहले ही बसपा सरकार से अपना समर्थन वापस कर लेती रही है। इसलिए बाद में बसपा ने भाजपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा और 2007 में इस साहस का फायदा विधानसभा में पूर्ण बहुमत के रूप में मिला था।

गठबंधन से नुकसान

पिछली बार सपा के साथ चुनाव लड़ने के बाद मायावती सपा के साथ अपनी पार्टी का गठबंधन खत्म करते हुए कहा था कि बसपा का वोट तो दूसरी पार्टियों के पास तो चला जाता है, लेकिन दूसरी पार्टियों के समर्थक गठबंधन के बावजूद बसपा को अपना वोट नहीं देते। इसलिए उन्हें गठबंधन करने से फायदा नहीं होता, नुकसान होता है। वह अपनी इस सोच पर कितनी दृढ़ हैं कि इन चुनावों के लिए इंडिया गठबंधन के साथ नहीं आयीं और न ही उन्होंने भाजपा के साथ कोई सार्वजनिक रूप से गठबंधन किया है।

भले उनके विरोधी इस बात का ढिंढोरा पीटते हों कि मायावती और भाजपा के बीच गुप्त गठबंधन हुआ है, लेकिन जिस तरह से रणनीतिक मजबूती के साथ मायावती 18वीं लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में डटी हुई हैं, उससे यह नहीं लगता कि वह भाजपा के साथ कोई नुरा कुश्ती लड़ रही हैं। वह चुनावों को लेकर पूरी तरह से गंभीर नजर आ रही हैं। अब सवाल है कि क्या उनके समर्थक इस बात को गंभीरता से लेंगे? मायावती की या बसपा की सबसे बड़ी ताकत दलित और मुस्लिम वोटरों की एकजुटता रही है। हाल के सालों में भाजपा ने जिस तरह से दलितों और अति पिछड़ों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, उसके कारण बसपा का पारंपरिक दलित आधार कमजोर हुआ है।  

सिर्फ जाटव मतदाता ही बसपा के  साथ अभी भी मजबूती से खड़ा हुआ है। अगर इन चुनावों में बसपा अपने मजबूत समर्थक मतदाता समूह जाटव और मुस्लिम मतदाताओं को साधने में कामयाब रहीं तो निश्चित रूप से उसे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस से कहीं ज्यादा मुस्लिम वोटों का समर्थन मिल सकता है। समाजवादी पार्टी के साथ अब मुस्लिम मतदाता उतनी मजबूती के साथ जुड़ा हुआ नहीं है जैसे कभी मुलायम सिंह की मौजूदगी में हुआ करता था। अगर मुसलमानों ने और दलितों ने मायावती को गंभीरता से लिया तो वे इस बार लोकसभा चुनाव में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत वापस पा सकती हैं। – विजय कपूर

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