कभी नेता जनसेवा के लिए जाने जाते थे और सम्मान के पात्र थे लेकिन अब राजनीति (Maharashtra Politics) को अपराधीकरण के वायरस ने जकड़ लिया है। नेता माफिया बनकर लूट-खसोट करने लगे हैं। नेतागिरी का 4 लूट और डकैती का लाइसेंस मान लिया गया है। जब अति हो जाती है तो त्रस्त लोगों का आक्रोश भड़क उठता है।
आखिर कोई कितना बर्दाश्त करेगा? महाराष्ट्र के 2 सरकारी ठेकेदार संगठनों ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे (CM Eknath Shinde), उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस (Devendra Fadnavis) व अजीत पवार (Ajit Pawar) को पत्र लिखकर गुहार की है कि वसूली करनेवाले राजनीतिक गुंडों से हमें बचाया जाए। महाराष्ट्र स्टेट कांट्रैक्टर्स एसोसिएशन व स्टेट इंजीनियर्स एसोसिएशन ने अपने पत्र में लिखा है कि प्रत्येक जिले में प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों से कथित रूप से जुड़े लोग या स्थानीय राजनीतिक समूह सरकारी प्रोजेक्ट से जुड़े ठेकेदारों से जबरन वसूली करते हैं और रकम उगाही करने में शारीरिक हिंसा पर भी उतर आते हैं।
वसूली करनेवाले ये राजनीतिक तत्व हर जिले में सरकारी कार्यों को रोकने के लिए धमकी देते हैं। ठेकेदार संगठनों ने राज्य सरकार से धमकियों, जबरन वसूली के प्रयासों तथा राजनीतिक विवादों से कार्यों में रुकावट डालने के खिलाफ संरक्षण देने की मांग करते हुए फरवरी के अंत तक कानून बनाने का अनुरोध किया है। संगठनों ने ऐसा न करने पर विभिन्न परियोजनाओं के कार्य रोकने की चेतावनी दी है।
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आमतौर पर देखा जाता है कि शिकायत करने पर पुलिस छोटे-मोटे गुंड़ों पर कार्रवाई कर मामला निपटा देती है और असली वसूली सरगना को हाथ नहीं लगाती। नेतागिरी और दादागिरी में कोई फर्क ही नहीं रह गया है। पहले नेता अपने स्वार्थ के लिए गुंडों का इस्तेमाल करते थे लेकिन बाद में बाहुबली खुद ही राजनीति में आ गए। असामाजिक तत्वों की राजनीति में घुसपैठ बढ़ती चली गई। वे नगरसेवक, जिला परिषद सदस्य, विधायक, सांसद और मंत्री भी बनने लगे। जहां कोई सरकारी निर्माण कार्य हो या प्रोजेक्ट बन रहा हो, वहां राजनीतिक दलों की आड़ में ठेकेदारों से जबरन मोटी रकम वसूल करनेवाला संगठित गिरोह सक्रिय हो जाता है। यह माफिया जनता के बड़े वर्ग में दबदबा जमा लेता है।
इसलिए वोट बैंक के लालच में राजनीतिक पार्टियां इन्हें संरक्षण और समर्थन देने लगती हैं। विकास कार्यों के देर से होने या उनकी गुणवत्ता खराब होने की एक वजह यह भी है कि ठेकेदारों से हफ्ता वसूली की जाती है। कर्नाटक के पिछले विधानसभा चुनाव में ठेकेदार संगठनों ने नेताओं पर 40 प्रतिशत कमीशन वसूली का आरोप लगाया था। जब ठेकेदारों से वसूली की जाए तो काम की क्वालिटी कहां से अच्छी रह सकती है! कांग्रेस ने इस मुद्दे को चुनाव में उठाया था।
अन्यत्र भी यही हाल
गुजरात में पुल टूटने की घटना हो या अन्य राज्यों में सड़कें धंसने के मामले, सारे घटिया निर्माण कार्यों की मुख्य वजह भ्रष्टाचार है। जिस ठेकेदार का टेंडर मंजूर होता है, वह राजनीतिक दलों के दबाव में रहता है। काम कैसा भी हो, उसे नेताओं और अफसरों को उनका मुंहमांगा हिस्सा देना पड़ता है। जबरन वसूली अपराध है लेकिन ठेकेदार यदि इसके लिए तैयार न हो तो टेंडर रद्द किया जा सकता है और कोई अगला टेंडर मिलना भी मुश्किल हो जाता है।
इसलिए सरकारी प्रोजेक्ट के निर्माण में तेरी भी चुप, मेरी भी चुप की नीति चलती है। वर्ष में कई बार सड़कें बनाई और खोदी जाती है। ब्रिटिश शासन काल के पुल 100 वर्ष से ज्यादा चल गए लेकिन अब निर्माण कार्य की वैसी गारंटी नहीं रही। विकास में भ्रष्टाचार की दीमक लगना बहुत बुरी बात है। जब कोई माफिया ही नेता बन जाए तो करेला और नीम चढ़ा जैसी हालत हो जाती है। इसे देखते हुए जरूरी है कि ठेकेदारों को वसूली से बचाने के लिए सख्त कानून बनाया जाए और उस पर अमल भी किया जाए।