संघीय व्यवस्था या फेडरल सिस्टम (Federal System) में राज्यों के अपने विशिष्ट अधिकार होते हैं. राज्यों का दर्जा सूबे या प्रांत से ऊंचा माना गया है. आजादी के पूर्व भारत में प्रांत हुआ करते थे जैसे कि यूपी का नाम तब संयुक्त प्रांत या यूनाइटेड प्राविंस था. मध्यप्रदेश को उस जमाने में सेंट्रल प्राविंस एंड बरार के नाम जाना जाता था. जब केंद्रशासित एकात्मक प्रणाली (यूनिटरी सिस्टम) हो तो प्रांतों की नकेल केंद्र के हाथों में रहती है. इसके विपरीत संघात्मक प्रणाली (फेडरल सिस्टम) में संविधान राज्यों को महत्व दिया जाता है.
अधिकारों की केंद्रीय सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची होती है. समवर्ती सूची या कॉन्करेंट लिस्ट में ऐसे विषय आते हैं जिन पर केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें कानून बना सकती हैं. इस आदर्श व्यवस्था के बावजूद केंद्र सरकार कहीं न कहीं विपक्ष शासित सरकारों के काम में अड़ंगा डालती प्रतीत होती हैं.
राज्यों की झांकी रोकी
गणतंत्र दिवस परेड में पहले देश के सभी राज्यों की झांकियों का समावेश हुआ करता था जिनमें वहां की संस्कृति के खास पहलू दर्शाए जाते थे किंतु अब कुछ वर्षों से न जाने क्यों बंगाल की झांकी को अनुमति नहीं दी जाती. इस बार तो पंजाब की झांकी भी शामिल नहीं की जाएगी. यद्यपि रक्षा मंत्रालय ने कहा कि पंजाब की झांकी इस वर्ष की थीम के व्यापक विषयों के अनुरूप नहीं पाई गई, इसलिए तीसरे चरण की बैठक के बाद उस पर विचार नहीं किया गया. चाहे जो भी दलील दी जाए, लोग तो यही मानते है कि केंद्र बीजेपी या एनडीए शासित राज्यों की झांकियों को अनुमति देता है लेकिन टीएमसी शासित बंगाल की झांकी या आम आदमी पार्टी शासित पंजाब की झांकी को रोक दिया जाता है.
यदि केंद्र को झांकियों में कुछ अनुचित लगता है तो वह समय रहते उनमें सुधार करने का सुझाव दे सकता है. राज्यों की झांकी रोकना वहां के जनप्रतिनिधित्व के साथ अन्याय है. क्या किसी विपक्ष शासित राज्य को गणतंत्र दिवस परेड में अपनी संस्कृति, प्रगति या योजनाओं की जानकारी देने या झलक दिखाने का हक नहीं है? ऐसे राज्य चाहें तो अपने साथ पक्षपात का आरोप लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. बेशक झांकी के कुछ पैरामीटर रहते होंगे कि वह किस आकार की रहनी चाहिए अथवा उसकी विषयवस्तु (थीम) राष्ट्रीय भावना के अनुरूप होनी चाहिए. पंजाब की झांकी में आमतौर पर खेती करते किसान, भांगड़ा या गिद्दा नृत्य का समावेश होता देखा गया है.
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158 बिल लंबित पड़े हैं
एक अन्य मुद्दा है कि केंद्र सरकार के पास राज्य सरकारों के करीब 158 बिल विचाराधीन हैं. इनमें सबसे ज्यादा 19 बिल तमिलनाडु के और 11 महाराष्ट्र के हैं. जब राज्यों के विधानमंडलों ने बहुमत से इन विधेयकों को पारित कर दिया है तो केंद्र उन्हें क्यों रोके हुए है? 10 वर्षों में केंद्र ने राज्यों के 247 विधेयकोें में से केवल 89 को ही स्वीकृति दी है. खास बात यह है कि इनमें से आधे से ज्यादा बिल विपक्षी दलों की सरकारों वाले राज्यों से हैं. संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल इन बिलों को केंद्र के पास भेजते हैं. ये बिल ऐसे होते हैं जिनमें गवर्नर को लगता है कि इन्हें राज्य ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर बनाया है.
छत्तीसगढ़ और राजस्थान के धर्मांतरण संबंधी बिल सबसे पुराने 2006 और 2008 के बताए जाते हैं. अब तो राजस्थान व छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार आ गई है. केंद्र चाहे तो इन बिलों की खामियां बताकर उन्हें लौटा दे अथवा उन्हें रोके रहने की वजह बता दे. वैसे गुजरात का गुंडागर्दी पर रोक लगाने और दोषियों की संपत्ति जब्त करनेवाला बिल भी विचाराधीन है. हरियाणा के गैंगस्टर रोकथाम व भूमि मुआवजा बिल भी पेंडिंग हैं. क्या राज्यों के विधेयकों को रोककर केंद्र अपना दबदबा दिखाना या अहमियत सिद्ध करना चाहता है?