कभी भी 2 नावों की सवारी करना नादानी है। या तो सरकारी नौकरी कर लो जो कि बड़ी किस्मत से मिलती है या फिर पूरी तबियत से राजनीति में कूद पड़ो और पीछे मुड़कर न देखो! मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले की सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट या डिप्टी कलेक्टर रह चुकी निशा बांगरे (Nisha Bangre ) को नेतागिरी का ऐसा शौक चर्राया कि उन्होंने अच्छी-भली गवर्नमेंट सर्विस से इस्तीफा देकर लोकसभा चुनाव लड़ने की ठानी। उनका कहना है कि कांग्रेस ने उन्हें टिकट देने का वादा किया था लेकिन फिर वादे से मुकर गई। इसलिए निशा न इधर की रहीं न उधर की! त्रिशंकु बनकर रह गई।
इधर नौकरी गई और उधर लीडरी भी हासिल नहीं हुई। कांग्रेस ने उम्मीदवारी देने का वादा नहीं निभाया तो किसी अन्य पार्टी का दरवाजा खटखटाती या फिर निर्दलीय खड़ी हो जातीं! वैसे भी किसी राजनीतिक पार्टी का कोई भी वादा भरोसेमंद नहीं रहता। मध्यप्रदेश सरकार उसका इस्तीफा स्वीकार नहीं कर रही थी लेकिन इसके लिए उन्होंने सरकार से लड़ाई लड़ी कि मुझे सेवा मुक्त किया जाए। अब निशा बांगरे की हालत यह हो गई कि आसमान से लटके, खजूर पे अटके! अब उनकी गरज है। वह फिर से अपनी नौकरी में बहाल होना चाहती हैं।
उन्होंने सामान्य प्रशासन विभाग को आवेदन दिया है कि मुझे सेवा में वापस लिया जाए। निशा की दलील है कि ऐसे उदाहरण है जहां सरकारी कर्मचारियों ने इस्तीफा दे दिया, चुनाव लड़ा और चुनाव हारने के बाद सेवा में वापस आ गए। उनकी रिक्वेस्ट अपनी जगह है लेकिन फैसला सरकार को लेना है कि इस पूर्व डिप्टी कलेक्टर को वापस सेवा में ले या न ले।
क्या वे इतनी उपयोगी हैं कि सरकार उन्हें नौकरी बहाल करना उचित समझे? कमान से छूटा हुआ तीर या छोड़ी गई नौकरी वापस नहीं आया करते। कहावत है- आधी छोड़ पूरी को धावे, पूरी मिले ना आधी पावे। जो हाथ में था वो भी निकल गया। निशा बांगरे की हालत ऐसी हो गई कि न खुदा ही मिला ना विसाले सनम! वे हताशा की हालत में गुनगुना सकती हैं- उलझ गया जिया मेरे कांग्रेस के जाल में, भोली थी मैं ऊंसी वादे की चाल में!