आज की खास खबर | क्या रायबरेली छोड़ना सोनिया के लिए सही, पहली बार यूपी से गांधी परिवार का कोई नहीं

क्या रायबरेली छोड़ना सोनिया के लिए सही, पहली बार यूपी से गांधी परिवार का कोई नहीं

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लगता है, कांग्रेस ने यूपी की सच्चाई समझ ली कि आज वह कितने पानी में है।  नेहरू-इंदिरा युग में यूपी कांग्रेस का गढ़ था।  तब गोविंद वल्लभ पंत, चंद्रभानु गुप्त डा।  संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी जैसे कांग्रेस के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।  बाद में इस किले की ईंटे खिसकती चली गईं।  पार्टी केवल रायबरेली और अमेठी की 2 सीटों तक सीमित रह गई।  2019 के चुनाव में अमेठी भी हाथ से निकल गई।  अब सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने भी अपनी भावुकताभरी चिट्ठी के जरिए रायबरेली सीट छोड़ने का संकेत दे दिया।  राजस्थान से नामांकन के बाद उनका राज्यसभा में जाना तय हो गया।  उधर राहुल गांधी भी अमेठी नहीं बल्कि वायनाड से चुनाव लड़ेंगे।  पिछली बार स्मृति ईरानी ने उन्हें अमेठी से हराया था लेकिन वायनाडवासियों ने उन्हें निर्वाचित कर लोकसभा में भेजा था। 

अपने ही घर में घिर गए

यूपी की अपनी परंपरागत सीटों पर कांग्रेस घिर गई है।  हाल ही में सी-वोटर के लोकसभा चुनाव में जीतने की संभावना वाले सर्वे में कांग्रेस को मुश्किल में फंसा दिखाया गया था।  इस संदेश को कांग्रेस कैसे झुठला पाएगी कि आशंकित हार के डर से सोनिया ने रायबरेली से न लड़ने का फैसला किया है।  यह भी संभव है कि सोनिया अपनी जगह प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाना चाहेंगी।  उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को भावुक चिट्ठी लिखते हुए कहा कि उनका परिवार रायबरेली में ही आकर पूरा होता है? यदि ऐसी बात है तो उनका परिवार छोड़ने का क्या मतलब है? सोनिया गांधी का यह तर्क गले नहीं उतरता कि वह स्वास्थ्य के कारणों से रायबरेली छोड़ रही हैं और राज्यसभा पहुंचने की कोशिश कर रही है।  इससे गलत संदेश जाता है मानो राज्यसभा में किसी तरह की जिम्मेदारी या दबाव ही नहीं रहता। 

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कठिन लड़ाई से बचने की कोशिश

पहले से ही कांग्रेस में राजनेताओं के छोड़कर जाने की भगदड़ मची हुई है, ऐसे में अगर नेहरू-गांधी परिवार के लोग भी कठिन लड़ाई से बचने के लिए पैर पीछे खींचते नजर आएंगे तो कांग्रेस का भगवान ही मालिक होगा? पहले से ही कहा जा रहा है कि 2019 में यूपी की महज एक सीट पर जीतने वाली कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश से साफ हो जाएगी।  ऐसी सियासी अफवाहों के बीच सोनिया गांधी ने भले अपने निजी कारणों से रायबरेली से चुनाव न लड़ने का फैसला किया हो, लेकिन संदेश यही जा रहा है कि उन्होंने भी यह मान लिया है कि कांग्रेस के लिए यहां जीत पाना मुश्किल होगा।  

क्षेत्र में जाकर अपील करनी थी

अगर उन्होंने तय ही कर लिया था कि अपने स्वास्थ्य कारणों से वह चुनाव नहीं लड़ेंगी और उनकी जगह प्रियंका गांधी लेंगी तो उन्हें क्षेत्र में जाकर प्रभावशाली लोगों की एक बैठक बुलाकर भावनात्मक तरीके से अपील करनी चाहिए थी कि उनका स्वास्थ्य लोकसभा की भागदौड़ भरी राजनीति की इजाजत नहीं दे रहा।  इसलिए वह उनसे चुनाव न लड़ पाने के लिए क्षमा मांगने आई हैं।  और अपनी यह जिम्मेदारी अपनी बेटी को सौंपकर उसे आपके हवाले कर रही हैं।  इससे लोगों में भावनात्मक असर पड़ता।  इस भावनात्मक अपील की बदौलत कम से कम रायबरेली को तो हर हाल में बचाया जा सकता था।  सोनिया गांधी ने ऐसा फैसला करके वाकई सियासी चूक की है।  उनसे इस तरह की उम्मीद इसलिए भी नहीं की जाती, क्योंकि यह वही हैं जिन्होंने राख की ढेर में तब्दील हो चुकी कांग्रेस को भाजपा के अटल बिहारी जैसे कद्दावर नेता के समक्ष फिर से खड़ा किया था और भारतीय राजनीति में अपना इतना प्रभावशाली रूतबा बनाया कि कई सालों तक वह ‘फोर्ब्स-100’ ताकतवर वैश्विक राजनेताओं की सूची में लगातार मौजूद रहीं। 

सूचना का अधिकार और मनरेगा जैसी गेमचेंजर पॉलिसियां उन्हीं के दिमाग की उपज थीं।  संयुक्त राष्ट्र संघ में जिस तरह से उन्होंने 2 अक्टूबर के दिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाये जाने की वकालत की थी, वह भी उनके एक मंझे हुए राजनेता की बानगी देता था।  लेकिन जिस तरह से उन्होंने रायबरेली से लोकसभा चुनाव न लड़ने का फैसला किया है, उससे साफ लगता है कि या तो उनसे या उनके सलाहकारों से बड़ी भूल हो गई है।  अगर उनका वाकई स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा तो राज्यसभा भी क्यों जा रही हैं? क्या बिना सांसद रहे उनका वजूद नहीं रह सकता? 

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