आज की खास खबर | कोचिंग गाइडलाइन से किसका फायदा होगा !, व्यवस्था ‘कमजोर’ इसलिए कोचिंग की पड़ रही जरूरत

कोचिंग गाइडलाइन से किसका फायदा होगा !, व्यवस्था ‘कमजोर’ इसलिए कोचिंग की पड़ रही जरूरत

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संजय तिवारी

sanjay.tiwari@navabharatmedia.com

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने देश भर के कोचिंग सेंटर के लिए नए दिशानिर्देश (Coaching Institute Guideline) जारी करते हुए इसका सख्ती से पालन करने के आदेश दिए हैं. निश्चित रूप से करिअर कोचिंग के बढ़ते बाजारीकरण पर अंकुश लगाने के मुख्य इरादे से उसे सरकार ने लागू करने का विचार किया होगा. विशेष रूप से कोचिंग की राजधानी राजस्थान के कोटा सिटी में जिस तरह कथित दबाव में आकर छात्र एक के बाद आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा रहे हैं, उस समस्या के समाधान के रूप में नये गाइडलाइन्स जारी किये गए होंगे. दिशानिर्देशों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि सरकार ने बीमारी की जड़ को खत्म करने की बजाय मरीज के इलाज को ही ध्यान में रखा है. इससे इस समस्या का कितना समाधान होगा, इसको लेकर भयंकर संशय व्यक्त किया जा रहा है.

वास्तव में समस्या कोचिंग सेंटर के बढ़ते प्रभाव की है या हमारे सकल एजुकेशन सिस्टम की. वर्तमान केन्द्र सरकार के बीते 10 वर्षों के कार्यकाल को देखा जाए तो शिक्षा व्यवस्था को समग्र बनाने की दिशा में ऐसी कोई ठोस उपाययोजना नहीं की गई, जिसका तात्कालिक असर हो. बहुत गाजे-बाजे के साथ लाई गई नई शिक्षा नीति पर अब भी बहस चल रही है और यह लागू होने के बाद जब तक इसके परिणाम आना शुरू होंगे, तब तक दुनिया में काफी कुछ बदल जाएगा. अब यह कहकर पल्ला तो नहीं झाड़ा जा सकता कि एक सरकार को शिक्षा जैसे सबसे संवेदनशील विषय को हँडल करने में 10 वर्ष बहुत कम समय है.

आजादी के पहले की बात करें या उसके बाद की, जहां भी सरकारी व्यवस्था कमजोर पड़ी है, वहां पर समानांतर व्यवस्था मजबूत हुई, तीन दशक में कोचिंग संस्थानों का जाल इसलिए भी मजबूत हुआ क्योंकि हमारी सरकार की शिक्षा व्यवस्था को लेकर नीति और नीयत, दोनों ही ठीक नहीं है. शिक्षा एक मूलभूत अधिकार होने के बाद भी अब भी सरकार ने इसकी गारंटी नहीं ली कि हर बच्चे तक हो. पहले तो शिक्षा का तक किसी इसकी पहुंच बाजार खड़ा करने के लिए इसे निजी हाथों में सौंप दिया गया. एक समय था जब सरकारी स्कूल में पढ़े हुए बच्चे डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर और एपीजे अब्दुल कलाम के रूप में देश की धरोहर बने. अब सरकारी स्कूलों में बच्चे सिर्फ मिड-डे मील के लिए जाते हैं. 

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उसका  कारण है उनकी आर्थिक जरूरतें. शहरी गरीब हो या गांव-खेड़े में रहने वाले लोग, वहां बच्चे को स्कूल सिर्फ इसलिए भेजा जाता है जिससे उसके दो वक्त के खाने का जुगाड़ हो सके. खाना होते ही उसके घरवाले वापस काम पर बुला लेते हैं. महाराष्ट्र में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाली एक अग्रणी संस्था ने कुछ वर्ष पहले ‘सभी को शिक्षा’ का उद्देश्य लेकर गरीब बच्चों के लिए ‘ज्ञानगंगा’ नामक प्रोजेक्ट शुरू किया था. उस प्रकल्प को यथोचित सफलता इसलिए नहीं मिली क्योंकि पढ़ने से ज्यादा उन ‘बच्चों’ की जरूरत उनके घर की अर्थव्यवस्था को थी. सरकार और उसके नुमाइंदे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि जब तक हम अपनी शैक्षणिक व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं बनाते, जब तक हम शिक्षकों के चयन से लेकर उनके कर्तव्यों के निर्वहन तक को पारदर्शी नहीं बनाते, कोचिंग में जाना मजबूरी ही रहेगी.

नियम-अनुशासन में तो बांधना ही होगा

इन निर्देशों में अजीब सी बातें कही गई हैं. 16 वर्ष की उम्र में ही प्रवेश दिया जाएगा, 6 घंटे से ज्यादा की पढ़ाई नहीं होगी, परफार्मेस का प्रेशर नहीं होगा. नई शिक्षा नीति को ‘गुरुकुल पैटर्न’ के तहत सृजन करने वाली सरकार और उसके अफसर की समझ पर कई बार तरस आता है. पौराणिक काल में जब प्रभु राम अपने भाइयों के साथ तथा कृष्ण-बलराम-सुदामा जब गुरुकुल गए थे, तब वे किशोर अवस्था में ही थे. भगवान कृष्ण को तो सांदीपनि ऋषि ने 64 दिन में 64 कलाओं में पारंगत होने का टारगेट दिया था, क्या ये प्रेशर था? परिवार में बच्चे कम हो गए और लालन-पालन का सलीका ही बिगड़ गया. दो दशक पहले तक बच्चों को कूटने वाले माता-पिता आज उन्हें डांटने तक से घबराने लगे हैं.

परिवार कमजोर हुआ तो स्कूलों मास्टर अब छड़ी के बगैर पढ़ाने की कवायद में लग गए, बच्चों के मन गए से डर गायब हो गया. ऐसे में कोचिंग सेंटर्स इसलिए फल-फूल क्योंकि 6 घंटे की पढ़ाई के बाद 12 घंटे होमवर्क अब न ही पैरेंट्स करा सकते और ना ही स्कूल के टीचर्स ! आनंद कुमार की सुपर-30 और विकास दिव्यकीर्ति की दृष्टि लर्निंग जैसे सेंटरों में कोचिंग चल रही है, क्या वह पैटर्न गलत है? 

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