आज की खास खबर | आरक्षण के बाद भी महिला उम्मीदवार कम क्यों?

आरक्षण के बाद भी महिला उम्मीदवार कम क्यों?

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डॉ. अनिता राठौर

भारत में अब महिला मतदाताओं का प्रतिशत लगभग 50 हो गया है। पिछले 15 वर्षों के दौरान हिंदी पट्टी में उनकी संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन जब संसद व राज्यों की विधानसभाओं में उनके प्रतिनिधित्व की बात आती है तो उनके पास अब भी 15 प्रतिशत से कम सीटें हैं। लोकसभा चुनाव में भी कोई अंतर नहीं आने जा रहा है। 19 अप्रैल को होने जा रहे 102 सीटों के लिए पहले चरण के मतदान में 1,625 प्रत्याशी मैदान में हैं, जिनमें से केवल 134 ही महिलाएं हैं अर्थात सिर्फ 8 प्रतिशत। पहले चरण में 21 राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में मतदान होगा, जिनमें मणिपुर, नागालैंड, लक्षद्वीप, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा व जम्मू कश्मीर में एक भी महिला उम्मीदवार नहीं है। बीजेपी ने जो अभी तक अपने 419 प्रत्याशी घोषित किये हैं, उनमें से सिर्फ 16 प्रतिशत ही महिलाएं हैं, जबकि कांग्रेस का प्रतिशत 20 है।

इस डाटा से ज़ाहिर हो जाता है कि राजनीतिक दल महिला प्रत्याशियों को मैदान में उतारने के लिए जल्दबाजी में नहीं हैं जबकि सितम्बर 2023 में लोकसभा व राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का विधेयक पारित कर दिया गया था, जोकि 2029 से लागू होगा। बीजेपी के एक नेता का कहना है कि बतौर प्रत्याशी महिलाओं की पहचान व ट्रेनिंग में अभी कई वर्ष का समय लगेगा। महिलाओं को अवसर केवल मतदाताओं के रूप में ही देखा जाता है।
 
बतौर प्रत्याशी व सांसद उनकी संख्या में इजाफा कछुवे की रफ्तार से ही हुआ है। चुनाव आयोग व राजनीतिक पार्टियों के प्रयास से महिला मतदाताओं का हिस्सा 42 प्रतिशत (1962) से बढ़कर 48। 2 प्रतिशत (2019) हो गया, जोकि लगभग उनकी जनसंख्या के बराबर ही है। लेकिन इसी अवधि में प्रत्याशियों के रूप में वह 3। 2 प्रतिशत से 9 प्रतिशत पर ही पहुचीं और 2019 की लोकसभा में बतौर सांसद उनका प्रतिशत 14 तक पहुंचा, जोकि उनके लिए आरक्षित 33 प्रतिशत से बहुत कम है। सितम्बर 1996 में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया था, तब से अब तक सात आम चुनाव हो चुके हैं, लेकिन किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने महिलाओं को 10 प्रतिशत से अधिक टिकट नहीं दिए हैं।  

औसतन कांग्रेस दस में से एक टिकट महिला को देती है, बसपा 20 में से एक, बीजेपी व भाकपा 8 प्रतिशत और माकपा 9 प्रतिशत। अगर इसका कुल औसत लगाया जाये तो यह पांच पार्टियां महिलाओं को 8। 5 प्रतिशत टिकट देती हैं। यह स्थिति तब है, जब 11 राज्यों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान करती हैं। दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र व गुजरात में महिला मतदाता पुरुष मतदाता से कम हैं और शेष राज्यों में वह लगभग बराबर ही हैं। पृड्डुचेरी मिजोरम, मेघालय, मणिपुर, छत्तीसगढ़, गोआ, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु आदि में का नतीजों को प्रभावित करती हैं महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान करती हैं।

नतीजों को प्रभावित करती हैं

हिंदी पट्टी में भी महिलाएं ही नतीजों को प्रभावित करती हैं। मात्र 15 वर्ष पहले यानी 2009 में मध्य प्रदेश, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश व राजस्थान में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 45 से भी कम था, लेकिन अब यह 46 से 49। 2 प्रतिशत तक हो गया है। 1951-52 में हुआ भारत का पहला चुनाव सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण था। पैमाना व उस समय की सामाजिक स्थितियां अप्रत्याशित थीं। मसलन 20 प्रतिशत से भी कम की साक्षरता दर आदि ने अनेक समस्याएं खड़ी की हुई थीं। लगभग 2। 8 मिलियन महिलाओं के ‘नाम’ चुनावी सूची में से हटाने पड़े थे, जिनमें से अधिकतर हिंदी पट्टी की थीं, क्योंकि उन्होंने अपनी पहचान पुरुषों से संबंध के रूप में दर्ज कराई थी- बब्बू की अम्मा, भोला की जोरू, बाबू की बिटिया आदि।  
इसके बाद से भारतीय महिलाओं की चुनावों में बतौर मतदाता व प्रत्याशी इजाफा हुआ है, लेकिन यह प्रगति इतनी धीमी है कि भारत लगभग हर प्रमुख देश से बहुत पीछे है। जिन देशों की मानव विकास सूचकांक टॉप पर है, उनमें महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक है। न्यूजीलैंड में महिला सांसदों का प्रतिशत 50 से अधिक है। स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड व इटली में भी 32 से 43 प्रतिशत के बीच हैं।

भारत की 31 विधानसभाओं में से 18 में आजतक कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं बनी है, जबकि शेष 13 में से केवल उत्तर प्रदेश, दिल्ली व तमिलनाडु में दो-दो महिलाएं मुख्यमंत्री बनी हैं। यह सोचने की बात है कि जो वृद्धि महिला मतदाताओं की संख्या में देखने को मिल रही है, वह महिला प्रतिनिधियों के संदर्भ में लुप्त क्यों है? राजनीतिक पार्टियों के लिए महिलाओं को लामबंद करना इसलिए भी आवश्यक हो गया, क्योंकि पुरुष वोट पर भरोसा करना कठिन होता जा रहा है। पुरुष रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में चले जाते हैं और सिर्फ वोट डालने के लिए वापस ट्रेवल करने में समय व पैसा खर्च होता है। जिन राजनीतिक पार्टियों ने महिला आरक्षण विधेयक पारित किया है, उनकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे महिला प्रत्याशियों की संख्या में वृद्धि करें। अगर महिलाओं को उम्मीदवार ही नहीं बनाया जायेगा तो वह संसद या विधान सभाओं में कैसे पहुंचेंगी?
 

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